Monday, March 28, 2011

Panna reserve in MP to get another tigress

BHOPAL: One more tigress would be relocated to Panna Tiger Reserve in the state on Saturday, as a part of efforts to revive the tiger population there, a top forest official said.

"A six-year old tigress will be brought to the park from Kanha Tiger Reserve tomorrow," Panna Tiger Reserve's field director RS Murthy said.

The tigress will be brought by road, he said; the distance between Kanha and Panna - both situated in eastern Madhya Pradesh - is around 450 km.

Two tigresses and a tiger had already been translocated to the Panna reserve, spread over an area of 543 sq km in Panna and Chhatarpur districts.

A tigress from Bandhavgarh Tiger Reserve was brought in March 2009 and another feline was translocated from Kanha in the same month.

Thereafter, a tiger was brought from Pench Tiger Reserve. The two translocated tigresses gave birth to cubs last year, officials said, adding that five cubs had been spotted so far.

Panna Tiger Reserve, which once had more than 35 tigers, had become devoid of the big cat, allegedly due to poaching, by 2009.

According to the revival plan, in all four tigresses and two tigers will be shifted to Panna, officials said. 


Source
http://timesofindia.indiatimes.com/home/environment/flora-fauna/Panna-reserve-in-MP-to-get-another-tigress/articleshow/7787513.cms

Panel formed to save endangered gharial

LUCKNOW: Gharial is a critically endangered animal today. The recent assessments indicate that not more than 200 breeding adults might be present in the country. MoEF, therefore, has proposed some serious conservation measures for gharials.

The national tri-state Chambal sanctuary management coordination committee has been formed to look into the conservation issues. The first meeting of the committee has took some serious decisions like developing a tri-state management plan for gharial in consultation with experts, local communities, state forest department and others.

The committee is a three tier de-centralised mechanism to look into entire gamut of issues from socio-economic to monitoring and research protocols. It has to devise an institutional framework to ensure proper coordination among all stakeholders and develop better coordination amongst three states and centre for concerted conservation initiatives with focus on involvement of local community. 
Source - http://timesofindia.indiatimes.com/home/environment/flora-fauna/Panel-formed-to-save-endangered-gharial/articleshow/7554581.cms

18 peacock carcasses found, poisoning suspected

 AURAIYA (Uttar Pradesh): The carcasses of 18 peacocks have been recovered from a village near here. The deaths were not natural and appear to have taken place due to poisoning, a forest official said.

The peacocks were found dead Monday in Basantpur village, around 160 km from state capital Lucknow.

The peacock, the national bird of India, is protected under Section 51, 1-A of the Wildlife Protection Act, 1972 and its killing is strictly prohibited.

"A team of forest officials came across the carcasses while they were on a routine inspection," RK Mishra, a sub-divisional forest officer (SDO), told reporters Tuesday in Auraiya.

Even as the exact cause of the peacock deaths is yet to be ascertained, forest officials said the deaths were "not natural".

"While we are waiting for the post-mortem reports, prima facie it appears the deaths took place because of poisoning," Mishra said.

"We have detained the man in whose fields the carcasses were recovered. Investigations are being carried out," he added.

According to officials, peacocks are killed for their meat and feathers. 

 Source http://timesofindia.indiatimes.com/home/environment/flora-fauna/18-peacock-carcasses-found-poisoning-suspected/articleshow/7761111.cms

Sunday, March 27, 2011

नदियाँ

वे सभी जल धाराएँ जो भूमि पर स्वाभाविक रूप से बहती हैं, नदियाँ कहलाती हैं। नदियाँ निरंतर बहती रहें यह प्रकृति का नियम है। यह जल चक्र श्रृंखला का आवश्यक अंग है। नदी समुद्र में समाहित होती है। समुद्र का जल वाष्प बनकर पुनः वर्षा का रूप धारण करता है। और यह जल फिर समुद्र में मिल जाता है। नदियाँ पृथ्वी की ऊपरी सतह का व्यापक और विशिष्ट भौतिक रूप होती हैं। भूमि, ढाल और वर्षा से यह उत्पन्न होती हैं। नदियाँ दो प्रकार की होती हैं- वर्षावाहिनी और सदावाहिनी या सदानीरा। वर्षावाहिनी नदियाँ मौसमी नदियाँ होती है। जो वर्षा ऋतु में पानी से आप्लावित हो जाती हैं और पावस के समाप्त होते ही यह सूख जाती हैं। जबकि सदावाहिनी या सदानीरा नदियों में वर्ष भर पानी रहता हैं। यह आर्थिक और अन्य दृष्टि से लाभदायक होती हैं जैसे-पर्यटन, सिंचाई, निस्तार सुविधा, मछली पालन, परिवहन, विद्युत उत्पादन आदि।

नदियाँ स्वच्छ जल प्रदात्री हैं। इन्हीं नदियों ने उपजाऊ कॉप मिट्टी निक्षेपित कर उत्तर भारत के विशाल मैदानों को निर्मित किया है। इनके किनारे अनेक प्रकार के वन तथा वन्यप्राणी विकसित तथा संरक्षित होते हैं। चारागाह, फलों के बागान पाए जाते हैं। सिंचाई एवं निस्तार की सुविधाओं के हिसाब से लाभदायक हैं। इनमें जलप्रपात बनते हैं जिनसे विद्युत उत्पन्न होती है। ये सुरम्य तथा नैसर्गिक वातावरण तथा शुद्ध पर्यावरण प्रदान करती हैं। इतना ही नही सैलानियों का मनोरंजन तथा रोजगार के साधन सुलभता से मिलते हैं। नदियों के तटों पर ही धार्मिक, ऐतिहासिक तथा सांस्कृतिक महत्व के स्थल शरण पाते हैं। ये प्राचीन सभ्यता और संस्कृति की जन्मदात्री हैं। नहरों के संजाल से सतत् सिंचाई के साधन बारहों महीने उपलब्ध होते हैं। मंद जल गति के कारण इनके जल मार्गों का आवागमन के रूप में प्रयोग होता है। नदियाँ भूमिगत जल का प्रचुर भण्डार होती है, नदियाँ जलोढ़ मिट्टी के कारण भूमि उपजाऊ एवं कृषि योग्य बनाती हैं।

पर्वतीय ढालों में उत्तम वन एवं चारागाह पाये जाते हैं। इनमें खनिज भण्डार होते हैं। ये ढाल वर्षा में सहायक होते हैं तथा नदियों के उद्गम, स्वास्थ्यवर्धक जलवायु, मनोरम प्राकृतिक छटा और पर्यटकों के आकर्षण के केन्द्र होते हैं।


नदियों का जल प्रवाह तन्त्र या अपवाह तन्त्र


जल प्रवाह या अपवाह यह दर्शाता है कि जल का प्रवाह किस ओर है। जिस तरफ पानी बहता है। निश्चित रूप से ढाल को वह इंगित करता है। अतः अपवाह तन्त्र बहुत महत्वपूर्ण होता है। इसके कारण ही भूतल की संरचना में परिवर्तन अवश्यभावी है। जल प्रवाह तन्त्र सम्बन्धित क्षेत्र के भूतल का ढाल, जल प्रवाह का आकार, संरचना तथा उसकी गति से जाना जा सकता है। भूतल की संरचना के आधार पर हमारे देश का अपवाह तन्त्र दो भागों में विभाजित किया जा सकता है-

1. प्रायद्वीपीय अपवाह तन्त्र या दक्षिणी भारत का अपवाह तन्त्र;
2. प्रायद्वीप अपवाह तन्त्र या उत्तरी भारत का अपवाह तन्त्र।

प्रायद्वीप भारत के भू-भाग के अति प्राचीन होने के कारण इसकी नदियाँ आधार जल को प्राप्त कर बूढ़ी हो चुकी हैं। उनकी लम्बवत् काटने की क्षमता क्षीण हो चुकी है। फलस्वरूप अब वे अपने ही किनारों को काटने लगी हैं। इस जल प्रवाह तन्त्र की घाटियाँ आकार में चौड़ी हैं जिससे बाढ़ आने पर इसका जल चारों ओर दूर-दूर तक बिखर जाता है।

भूगर्भविदों के मतानुसार-‘हिमालय पर्वत के जन्म के समय दक्षिणी पठार को कुछ धक्के लगे, जिसके कारण वह पूरब की ओर झुक गया।’

प्रायद्वीप भारत की नदियाँ


प्रवाह दिशा के अनुसार प्रायद्वीप की नदियों को तीन भागों में विभाजित किया जाता है-

1. पश्चिम की ओर प्रवाहित होने वाली नदियाँ- इन नदियों में नर्मदा, साबरमती तथा ताप्ती हैं।
2. पूर्व की ओर प्रवाहित होने वाली नदियाँ- इन नदियों में दामोदर, स्वर्णरेखा, महानदी, गोदावरी, कृष्णा, कावेरी तथा बौगाई हैं।
3. उत्तर की ओर प्रवाहित होने वाली नदियाँ- इन नदियों में चम्बल, बेतवा, सोन, केन, धसान और कालीसिंध हैं।

नदी अपदरित अथवा समप्राय मैदान


नदियाँ जब पर्वतों और पठारों से निकलकर बहती हैं तो वे उस भू-क्षेत्र को समतल बनाती हैं। जब तक वे चरम पर न पहुंच जाएँ तब तक नदियाँ क्रियाशील रहती हैं। चरम पर पहुँचने पर समस्त भू-भाग समतल मैदान में परिवर्तित हो जाता है।

चूने से समृद्ध भू-भाग में जल का प्रवाह धरातल पर कम और आंतरिक भाग में अधिक होता है। इन भागों में ज्यों-ज्यों चट्टानों के घुलने की क्रिया बढ़ती जाती हैं, त्यों-त्यों भूमि के ऊपर और नीचे परिवर्तन होता जाता है। इस प्रकार चूने के समस्त क्षेत्र जल प्रवाह के कारण घुलकर समतल मैदान बन जाते हैं।

पठार प्रदेशों में नदियाँ


भौगोलिक संरचना के हिसाब से मध्यप्रदेश को प्रमुख तीन भागों में विभाजित किया जा सकता है। मध्य-उच्च प्रदेश, सतपुड़ा श्रेणी प्रदेश और पूर्वी पठार।

1. मध्य-उच्च प्रदेश


(अ) मध्य भारत के पठार में चम्बल, सिंध, क्वाँरी, पार्वती और कूनू नदियाँ प्रवाहित होती हैं। चम्बल इस प्रदेश की एक महत्वपूर्ण नदी है। इसकी सहायक नदियाँ काली सिंध, सिवान, पार्वती तथा बनास हैं।
(ब) बुन्देलखण्ड प्रदेश में सिंध और उसकी सहायक पहुँज, बेतवा और उसकी सहायक धसान तथा केन नदियाँ हैं
(स) रीवा-पन्ना क्षेत्र में केन एवं टोंस प्रमुख हैं।
(द) मालवा के पठार में अनेक नदियाँ बहती हैं जिनमें पश्चिम से पूर्व में माही, चम्बल, गंभीर, क्षिप्रा, छोटी काली सिंध, पार्वती, सिंध, बारना, तेंदोनी, धसान बेबास और सोनार हैं।
(इ) नर्मदा घाटी में नर्मदा की प्रमुख सहायक नदियाँ हिरन, तिनदोनी, बारना, चन्द्रकेशर, कारन, मान, ऊटी एवं हथिनी दाएँ तट से मिलने वाली नदियाँ हैं। बाएँ तट से मिलने वाली प्रमुख सहायक नदियाँ बरनाट, बंजर, शेर, शक्कर, दूधी, तवा, कुन्दी, देव और गोई आदि हैं।

2. सतपुड़ा श्रेणी प्रदेश


इस श्रेणी की प्रदेश में नर्मदा, ताप्ती, गोदावरी, प्रवाह तंत्र की नदियाँ प्रवहित होती हैं। जिनमें वैनगंगा, गार, शक्कर, छोटी तवा एवं वर्धा प्रमुख हैं।

3. पूर्वी पठार प्रदेश


इस श्रेणी के प्रदेश के अन्तर्गत बघेलखण्ड प्रदेश आता है। यह प्रदेश मुख्यतः सोन नदी के अपवाह क्षेत्र में आता है। सोन तथा उसकी सहायक नदियों में छोटी महानदी, जोहिला, गोपद, बनास, रिहन्द और कन्हार हैं। सोन नदी इस भू-भाग की सबसे लम्बी नदी है।

बुन्देलखण्ड का प्राचीन नाम दशार्ण है। दशार्ण का एक अर्थ दस नदी वाला प्रदेश भी होता है। ‘दशार्णों देश नदी च दशार्णों’ की चर्चा कात्यायन ने भी की है। महाभारत के विराट पर्व (19) में इसका उल्लेख है जो नकुल की विजय के परिप्रेक्ष्य में है।

शांति रम्याः जनपदा बहन्नाः पारितः कुरुन्,
पांचालश्चेदिमत्स्याश्च शूरसेनाः पटच्चराः,
दशार्ण नवराष्ट्रं च मल्लाः शाल्वा युगंधरा।।
बुन्देलखण्ड की दस नदियाँ इस प्रकार मानी गयी हैं- धसान, पार्वती, सिन्ध, बेतवा, चम्बल, यमुना, नर्मदा, केन, टोंस और जामनेर। दस नदियाँ यथा सिन्धु, पहुँज, बेतवा, धसान मंदाकिनी, सोनार, बेरमा, उर्मिल, केन, एवं किलकिला भी बुन्देलखण्ड क्षेत्र में आती हैं। ऐसी मान्यता है कि इन नदियों के कारण भी बुन्देलखण्ड का नाम दशार्ण पड़ा है। अणवि यानि सागर, अर्ण का मतलब होता है। जल। दस+अर्ण=दशार्ण। इसके अलावा-जमडार, सुकनई, कुँआरी, श्यामरी, काठन, पाटन, सुक्कू, बराना और कूड़न आदि नदियाँ भी हैं।

इस प्रकार पंजाब का (पंज+आब) पाँच नदियों के नाम पर नामकरण हुआ। इसी तरह बुन्देलखण्ड का दशार्ण दस नदियों के नाम पड़ा होगा। तीसरी मान्यता के आधार पर यह नदियाँ यमुना, मंदाकिनी, चंबल, (चर्मण्वती), पहुँच, केन, सिन्ध, कुँआरी, वेत्रवती, धसान (दशार्ण) और तमस (टोंस) हैं। अतः दस नदियों का प्रचीन देश दशार्ण था।

बुन्देलखण्ड का अधिकांश हिस्सा नर्मदा घाटी में विस्तारित है। बुन्देलखण्ड के सरिता परिवार में लगभग 15 नदियाँ आती हैं। इन नदियों में कुछ बुन्देलखण्ड की सीमा बनाती हैं, कुछ इसकी जीवनदायिनी हैं तो कुछ स्थानीय किन्तु महत्वपूर्ण हैं। इनमें कुछ मुख्य नदियाँ हैं तो कुछ इन नदियों की सहायक नदियाँ हैं। इनके नाम हैं- बेतवा, केन, धसान, (दशार्ण), चम्बल (चर्मण्वती), जामनेर (जामनीर या जामिनी), सिन्धु, पहुँज, सुनार, टोंस (टमस या तमसा), नर्मदा, यमुना, पयस्विनी (मंदाकिनी), किलकिला, पार्वती और उर्मिल आदि।

हमारी भारतीय संस्कृति सरिताओं के तटों पर जन्मी, पली और फली-फूली है। बुन्देलखण्ड की नदियाँ हमारे देश में सबसे प्राचीन है। इस प्रदेश की नदियाँ अधिकतर उत्तर दिशा की ओर बहती हैं। क्योंकि बुन्देलखण्ड की भू-संरचना के हिसाब से इसका ढाल उत्तर दिशा की ओर है। प्रदेश की केवल दो बड़ी नदियाँ हैं जो पूर्व से पश्चिम की ओर बहती हैं, ये नर्मदा और ताप्ती।

नदियों की कथाएँ/दन्त कथाएँ


नर्मदा- विन्ध्याचल आख्यान
पयश्विनी- अनुसुइया-त्रिदेव कथा, जयन्त कथा, तुलसीदास-राम दर्शन, बालाजी-औरंगजेब कथा
सिन्ध- सनत कुमार-षटरिपु कथा, सनतकुमार-नारद कथा
यमुना- कालियादह- कृष्ण कथा
किलकिला- महामति प्राणनाथ-किलकिला उद्धार कथा
बेतवा- बेत्रवती-इन्द्र कथा
क्षिप्रा- समुद्र मंथन-देवासुर संग्राम,
जमड़ार- बाणासुर औऱ उसकी बेटी उषा की कथा
पहुँज- दो ब्राह्मण बालकों के स्वप्न की कथा
धसान- दशरथ-श्रवण कुमार मृत्यु प्रसंग।


Author: 
जगदीश प्रसाद रावत

चम्बल नदी

इत यमुना उत नर्मदा, इत चम्बल उत टौंस,
छत्रसाल से लरन की, रही न काहू हौंस।

Author: 
जगदीश प्रसाद रावत
यह नदी मध्यप्रदेश और राजस्थान के बीच सीमा रेखा बनाती है। यह पश्चिमी मध्यप्रदेश की प्रमुख नदियों में से एक है। जो यमुना नदी के दक्षिण की ओर से जाती है। पहले यह उत्तर-पूर्व की ओर फिर पूर्वी दिशा की ओर बहती हुई विसर्जित हो जाती है। चम्बल और काली सिन्ध मध्य भारत के पठारी प्रदेश की भी प्रमुख नदी है। चम्बल उपार्द्र प्रदेश से प्रवाहित होने वाली नदियाँ इसके सामान्य ढाल के अनुसार ही बहती हैं। ये दक्षिण से उत्तर-पूर्व की ओर प्रवाहित होती हैं। सिन्धु, क्वाँरी, पार्वती, कुनू और चम्बल इस भू-भाग की प्रमुख नदियाँ हैं।

चम्बल इस पठार की एक प्रमुख नदी है। जो पठार में सँकरी व गहरी घाटियों में बहती है। इस नदी पर गाँधी सागर और राणा प्रताप सागर जैसे बाँधों का निर्माण किया गया है। काली सिंध और पार्वती, जो चम्बल की सहायक नदियाँ हैं, के जल प्रवाह बीहड़ों की रचना करते हैं। इसी पठार के उत्तर मैदानी भाग में जलोढ़ मिट्टियों का सृजन चम्बल, सिंध एवं इसकी सहायक नदियों द्वारा किया जाता है। इन मिट्टियों को चम्बल, सिन्धु तथा इसकी सहायक नदियों ने निर्मित किया। जलोढ़ प्रचुर मात्रा में उपजाऊ मिट्टी है। जहाँ यह पाई जाती है वह क्षेत्र कृषि से धन-धान्य होता है। इस प्रकार की मिट्टी जो चम्बल और उसकी सहायक नदियाँ निर्मित करती हैं। गुना, मन्दसौर, ग्वालियर तथा शिवपुरी में लावा मिश्रित मिट्टी मिलती है।

चम्बल का पठार कर्क रेखा के निकट होने के कारण जलवायु गर्म होती है। चम्बल, क्वाँरी तथा इसकी सहायक नदियों के बीहड़ों में उष्ण कटिबन्धीय शुष्क कटीले वन मिलते हैं। जैसे-बबूल, करील और खजूर आदि।

विदर्भ के राजा चेदि ने ही चम्बल और केन नदियों के बीच चेदि राज्य की स्थापना की थी। जिसे बाद में कुरू की पाँचवीं पीढ़ी में बसु ने यादवों के इसी चेदिराज्य पर विजय श्री प्राप्त की और केन नदी के तट पर शक्तिमति नगर को अपनी राजधानी बनाया। ऐसा कहा जाता है। कि चेदि राज्य ईसा पूर्व का है। चम्बल नदी का उद्गम मालवा पठार में इन्दौर जिले के महू के पास जनपाव पहाड़ी से हुआ है जो समुद्र तल से 616 मीटर ऊँची है। इसी नदी को चर्मण्वती भी कहा जाता है। यह महू के निकट से निकलकर धार, उज्जैन, रतलाम, मन्दसौर, शिवपुर, बूंदी, कोटा, धौलपुर होती हुई इटावा से 38 किलोमीटर दूर 1040 किलोमीटर की अपनी जीवन यात्रा पूरी करके यमुना में विसर्जित हो जाती है।

विन्ध्य क्रम की चट्टानों का निर्माण कुदप्पा चट्टानों के बाद हुआ है। इस प्रकार की चट्टानों के क्षेत्र में चम्बल तथा सोनघाटी क्षेत्र कहलाते हैं। मालवा का पठार जो त्रिभुजाकार है, अरावली की पहाड़ियों के दक्षिण में व यमुना आदि नदियों तथा विन्ध्याचल पर्वत श्रेणी के मध्य फैला हुआ है। बेतवा, काली, सिंध, चम्बल और माही इस प्रदेश से प्रवाहित होने वाली प्रमुख सरिताएँ हैं। चम्बल और उसकी सहायक नदियों ने यहां प्रवेश कर भयानक बीहड़ों को जन्म दिया है। कुछ वैज्ञानिकों की धारणा है कि दामोदर, स्वर्णरेखा, चम्बल तथा बनास नदियाँ अध्यारोपित जल अपवाह का निर्माण करती हैं। विन्ध्य पर्वतों के क्षेत्र में आयताकार अपवाह का स्वरूप भी प्राप्त होता हैं। चम्बल और उसकी सहायक नदियों की मिट्टी जलोढ़ है। चम्बल का भाग ऊबड़-खाबड़ है जिसकी समुद्र तल से ऊँचाई 300 से 500 मीटर के बीच पाई जाती है। लेकिन इसके उत्तरी एवं उत्तरी-पूर्वी भाग समतल मैदान हैं। जिनकी ऊँचाई 150 से 300 मीटर के बीच है। इस पठार का सामान्य ढाल दक्षिण व दक्षिण-पश्चिम से उत्तर की ओर है।

चम्बल के अन्तर्गत भिण्ड, मुरैना, ग्वालियर, गुना शिवपुरी एवं मंदसौर जिलों के भाग आते हैं। भाग का कुल क्षेत्रफल 32896 वर्ग किलोमीटर है, जो मध्यप्रदेश के पूरे भौगोलिक क्षेत्रफल का 7.5 प्रतिशत है। इस पठारी भाग के पूर्व में बुन्देलखण्ड का पठार, पश्चिम में राजस्थान की उच्च भूमि, उत्तर में यमुना का मैदान और दक्षिण में मालवा का पठार स्थित है।

यह उत्तर पूर्व की ओर बहने वाली नदियों में प्रमुख है। इसकी प्रमुख सहायक नदियाँ सिन्ध, क्षिप्रा, पार्वती और बनास हैं। इसकी सहायक नदी क्षिप्रा का शाब्दिक अर्थ होता तीव्रगति। जिसका उद्गम मालवा के इन्दौर जिले के ‘काकरी वरड़ी’ नामक पहाड़ी से हुआ है। चम्बल नदी कोटा सम्भाग में भैंसरोडगढ़ के पास 18 मीटर ऊँचाई से जल चूलिया झरने में गिरती है, इस नदी में बाढ़ों की बहुतायत है। बाढ़ के समय यह अपने धरातल से 130 मीटर उँचाई तक बहने लगती है। इस नदी की लम्बाई 195 किलोमीटर है।

चम्बल नदी पर लुप्त प्रायः वन्य प्राणी घड़ियाल के संरक्षण के उद्देश्य से चम्बल राष्ट्रीय घड़ियाल अभ्यारण्य की स्थापना मुरैना में की गई है। जो 3902 वर्ग कि.मी. क्षेत्रफल में फैला हुआ है। जो मध्य प्रदेश के 23 अभ्यारण्यों में से एक है। इसमें घड़ियाल के अतिरिक्त मगर, कछुआ, डालफिन एवं अन्य प्रजातियों के जलचर पाये जाते हैं। घड़ियाल संरक्षण के प्रदेश में अन्य दो और अभ्यारण्य सोन घड़ियाल-अभ्यारण्य सीधी एवं केन घड़ियाल अभ्यारण्य-छतरपुर में भी है।

चम्बल नदी सर्वाधिक मृदा अपरदन खासतौर से अवनालिका अपरदन का कार्य करती है। जिससे बीहड़ों का निर्माण हुआ है। बीहड़ों की मिट्टी भुरभुरी होने का कारण प्रति वर्ष वर्षा ऋतु में एवं नदी के बहाव से कटाव के कारण यह क्षेत्र वन विहीन है।


चम्बल की सहायक नदियाँ


कुनू चम्बल की सहायक नदी है। जिसका उद्गम शिवपुरी का पठार है। इस नदी की लम्बाई 180 किलोमीटर है। इसका प्रमुख अवरोधक मुरैना पठार है। यह संकरी गहरी घाटी में प्रवाहित होती है। और अन्त में चम्बल नदी में विसर्जित हो जाती है। श्योपुर जिले के वीरपुर के निकट ‘कूनो साइफन’ बनाया गया है। इसके समीपवर्ती क्षेत्र में कूनों-पालपुर नामक एक अभ्यारण्य भी है, जो 345 वर्ग किलोमीटर क्षेत्रफल में फैला हुआ है। यहाँ बाघ, तेंदुआ, सांभर और चीतल आदि वन्य प्राणी पाये जाते हैं। एक शोध के आधार पर गुजरात के गीर क्षेत्र में पाये जाने वाले सिंह यहाँ के वातावरण में रह सकते हैं।

काली सिंध


इसका उद्गम स्थल विन्ध्याचल पर्वत श्रेणी देवास का बागली गाँव है। काली सिंध भी चम्बल की एक सहायक नदी है। यह नदी अपने उद्गम से निकलकर शाजापुर और नरसिंहगढ़ जिलों में बहकर राजस्थान से चम्बल नदी में विसर्जित हो जाती है। यह अपनी जीवन यात्रा के पड़ावों में शिवपुरी, दतिया और भिण्ड होती हुई उत्तरप्रदेश में चम्बल नदी में अपना अस्तित्व समाप्त कर देती है।

क्षिप्रा


क्षिप्रा का शाब्दिक अर्थ होता है तीव्र गति। स्कंद पुराण के अनुसार यह नदी साक्षात् कामधेनु से प्रकट हुई है। बैकुण्ठ लोक से उत्पन्न होकर क्षिप्रा नदी तीनों लोकों में विख्यात है। भगवान वाराह के हृदय से यह सनातन नदी प्रकट हुई है। बैकुण्ठ में इसका नाम-क्षिप्रा, देवलोक में-ज्वरघ्नि, यमद्वार में- पापघ्नि, पाताल में-अमृत सम्भवा, वाराह कल्प में-विष्णु देहा आदि नामों से यह नदी विख्यात थी और वर्तमान में अवन्तिपुरी में-क्षिप्रा के नाम से जानी जाती है। क्षिप्रा चम्बल की एक प्रमुख सहायक नदी है जिसका उद्गम मालवा के इन्दौर जिले के ‘काकरी वरडी’ नामक पहाड़ी से हुआ है। इस नदी की लम्बाई 195 किलोमीटर है। यह नदी इन्दौर से उद्गमित होकर देवास और उज्जैन जिलों में बहती हुई अन्त में चम्बल नदी में मिल जाती है। क्षिप्रा नदी का पौराणिक महत्व है। यह भारत की सात पवित्र नदियों में से एक मानी गयी है। क्षिप्रा के तट पर द्वादश ज्योतिर्लिंगों में से एक ज्योतिर्लिंग महाकालेश्वर है। क्षिप्रा नदी के तट पर बसे उज्जैन नगर के विभिन्न कल्पों में नाम इस प्रकार थे- प्रथम कल्प में- स्वर्णश्रृंगा (कनकश्रृंगा), द्वितीय कल्प में-कुश स्थली, तृतीय कल्प में-अवन्तिका, चतुर्थ कल्प में- अमरावती, पंचम् कल्प में चूड़मणि, षष्ठम् कल्प में-पद्मावती और सप्तम कल्प में उज्जयिनी।

साधारण मनुष्यों और असाधारण मनुष्यों की दुनिया के मेल का ऐसा मेला कहीं देखने को नही मिलता है। एक लघु भारत को समेटे हमारी प्राचीन परम्परा, अद्भुत संस्कृति, समृद्ध संस्कार और धार्मिक विरासत के प्रतिनिधि पर्व के रूप में विख्यात है सिंहस्थ। सिंहस्थ क्यों मनाया जाता है? इसे लेकर अनेक कथाएँ हैं लेकिन सबसे अधिक प्रामाणिक कथा समुद्र मंथन की है। जिसका विस्तार इस प्रकार है। पौराणिक कथा है कि देवताओं और दानवों ने मिलकर समुद्र मंथन किया और अमृत कलश प्राप्त किया। अमृत को दानवों से बचाने के लिए देवताओं ने इसकी रक्षा का दायित्व बृहस्पति, चन्द्रमा, सूर्य और शनि को सौंपा। देवताओं के प्रमुख इन्द्र पुत्र जयन्त वह अमृत कलश लेकर भागे। दानव इस चाल को समझ गये। इस कारण देवताओं और दानवों में भयंकर संग्राम छिड़ गया यह बारह दिन चला। (देवताओं का एक दिन मनुष्यों के एक वर्ष के बराबर होता है) अर्थात् युद्ध बारह वर्षों तक चला। इस युद्ध में अमृत कलश की बूँदें छलक पड़ीं और धरती पर हरिद्वार, प्रयाग (इलाहाबाद), नासिक और उज्जयिनी (उज्जैन) में गिरीं। इस अमृत कलश की रक्षा में सूर्य, गुरु और चन्द्र के विशेष प्रयत्न रहे। इसी कारण इन्हीं ग्रहों की उन विशिष्ट स्थितियों में कुम्भ पर्व मनाने की परम्परा है। मान्यता यह है कि अमृत कलश से छलकी बूँदों से इन चार स्थानों की नदियाँ गंगा, यमुना, गोदावरी और क्षिप्रा अमृतमय हो गईं। अमृत बूँदें छलकने के समय जिन राशियों में सूर्य, चन्द्र, गुरु की स्थिति विशिष्ट योग के अवसर पर रहती है, वहाँ कुम्भ पर्व इन राशियों में ग्रहों के संयोग होने पर होते हैं।

इस महापर्व में स्नान का विशेष महत्व बताया गया है। हजारों स्नान कार्तिक मास में तथा सैकड़ों स्नान माघ मास में किये हों, वैशाख मास में करोंड़ों बार नर्मदा में स्नान किये हों, वही फल एक बार कुम्भ में स्नान करने से मिलता है। हजारों अश्वमेघ यज्ञ, सैकड़ों बाजपेय यज्ञ करने तथा लाखों लाख प्रदक्षिणा पृथ्वी की करने पर जो फल मिलता है, वही फल कुम्भ पर्व में स्नान करने से मिलता है।

मोक्षदायिनी क्षिप्रा का स्कंद पुराण में बड़ा महत्व बताया गया है। यजुर्वेद में उल्लेख है कि शिवजी के द्वारा जो रक्त गिराया गया वही यहाँ अपना प्रभाव दिखाते हुए नदी के रूप में प्रवाहित है। ऐसी भी कथा वर्णित है कि विष्णु की अँगुली को शिव के द्वारा काटने पर उसका रक्त गिरकर बहने से वह नदी के रूप में प्रवाहित हुई।

चम्बल की दूसरी सहायक नदी पार्वती है जिसका उद्गम सिहोर से होता है। यह अपने जीवन काल में 37 किलोमीटर लम्बी यात्रा करती है। मध्य भारत पठार पर यह नदी केवल चाचोरा तथा गुना तहसीलों की सीमा पर बहती है। अन्त में यह चम्बल में समाहित हो जाती है।

चम्बल बेसिन

मध्यप्रदेश में पानी रोको का क्या हो अगला कदम?

जलसंकट और सुखे से निजात पाने के लिए पूरे मध्यप्रदेश में सन् 2001 से पानी रोको अभियान संचालित है। वर्ष 2002 में इस अभियान का दूसरा चरण संचालित किया गया। इस अभियान के दोनों चरणों में बरसाती पानी को रोकने के लिये फार्म पौंड, डबरी, डबरा, पुण्डी, कुइया, मिट्टी के छोटे-छोटे बाँध, कन्टूर ट्रेंच, तालाब या रिसन तालाब इत्यादि बनाये गये हैं। जल संग्रह का यह काम सभी जगह शुरु किया गया और समाज तथा जन प्रतिनिधियों को इससे जोड़ने की पहल की गई। जल संरक्षण के जिस काम के अन्तर्गत ‘खेत के पानी को खेत में और गांव के पानी को गांव में’ रोकने की कोशिश की जाती है। मध्यप्रदेश में संचालित पानी रोको अभियान के द्वितीय चरण में सरकार ने जल संरक्षण के काम को पानी की स्थानीय जरूरत से जोड़ा और जरूरत के मुताबिक पानी संचित करने का प्रयास किया। चूंकि प्रदेश के हर इलाके में प्रर्याप्त पानी बरसता है, इसलिये तकनीकी नजरिये से हर इलाके में पानी की मांग के अनुसार पानी का इन्तजाम किया जा सकता है। जल संकट से स्थायी रूप से निपटने के लिये अपनाई इस रणनीति को मौटे तौर पर सारे देश में इस अभियान की चर्चा हुई। मध्यप्रदेश सरकार ने इस काम की बागडोर जिला प्रशासन के हाथ में रखी है और सरकार के विभिन्न विभागों के अमले तथा गैर सरकारी संस्थाओं को इस काम से जोड़ा गया है। इस कार्यक्रम से जनप्रतिनिधियों और समाज को जोड़ने का प्रयास लगातार जारी हैं।

राज्य स्तर पर पानी रोको अभियान की जिम्मेदारी राजीव गांधी वाटरशेड मिशन को सौंपी गई है। इस मिशन ने काम को आगे बढ़ाने के उद्देश्य से प्रदेश के सभी 51086 गाँवों में पानी रोको समितियों का गठन किया है, और सूखे से निपटने की जिम्मेदारी इन समितियों को सौंपी है। इस व्यवस्था के अनुसार 26 जनवरी 2002 से मध्यप्रदेश के लगभग सभी गाँवों में पानी रोको अभियान के द्वित्तीय चरण से सम्बन्धित काम शुरू किये जा चुके हैं। इसके अलावा नाबार्ड ने किसानों को अपने खेतों में फार्म पौंड, डबरी, डबरा, कुण्डी, कुइआं और ग्राउन्ड वाटर रिचार्ज के लिये एक योजना मंजूर की है। इस योजना के मंजूर होने के कारण सार्वजनिक बैंकों से उपभोक्ता कामों के लिए कर्ज मिलने का रास्ता साफ हो गया है। पिछले दो सालों में सूखा राहत, जलग्रहण विकास कार्यक्रम, इऐएस, जेजीएसवाइ, स्टेट फाइनेन्स कमीशन, दसवें एवं ग्यारवें वित्त अयोग और यूनिसेफ की वित्तीय मदद से इस काम को किया गया है। पानी रोको अभियान पर इन मदों से अब तक लगभग 800 करोड़ रुपये खर्च किये जा चुके हैं। इस काम में जनता की हिस्सेदारी लगभग 150 करोड़ रुपये की है।

प्रदेश के अधिकांश इलाकों विशेषकर मालवा और बुन्देलखण्ड में पानी रोको अभियान के दो चरण पूरा होने के उपरान्त भी जलसंकट बरकरार है। इस लिये पानी रोको अभियान के तीसरे चरण को लागू करने की जरूरत है, और इसके तीसरे चरण में निम्न रणनीति अपनाये जाने की जरूरत है-

(1) मध्यप्रदेश की विभिन्न भूवैज्ञानिक परिस्थितियों में जलग्रहण कार्यक्रम के परम्परागत मॉडल के स्थान पर पानी की मांग और उसकी स्व-स्थानपूर्ति पर आधारित मॉडल कर काम करने की जरूरत है।

(2) जल संकट के टिकाऊ हल के लिये सतही और भूजल के संरक्षण और संवर्धन के लिये एकल प्रयासों के स्थान पर माइक्रो स्तर पर समन्वित प्रयास करने होंगे।

(3) माइक्रो स्तर पर ही पानी की सकल मांग और उसकी सकल पूर्ति के आधार पर वर्षाजल का वांछित मात्रा में जमीन के ऊपर और भूवैज्ञानिक परिस्थितियों के अनुसार जमीन के नीचे स्थित एक्वीफरों में संग्रह करना होगा।

(4) वर्षाजल के संरक्षण के लिये जलग्रहण कार्यक्रम की स्व-स्थान जलसंरक्षण की प्रचलित व्यवस्था के स्थान पर मांग और पूर्ति व्यवस्था को रणनीति का आधार बनाना होगा।

(5) पानी रोको अभियान के पिछले दो चरणों के क्षेत्रवार अनुभवों के आधार पर अभियान के तकनीकी पक्ष को परिमार्जित करने तथा परिणाममूलक बनाने की जरूरत है। अभी भी अनेक इलाकों में स्थानीय परिस्थितियों से मेल खाती उचित परिणाम नहीं मिल पा रहे हैं। कानूनी और सामाजिक मुद्दों को जोड़ने की जरूरत है।

(6) पानी रोको अभियान के तीसरे चरण में आम आदमी की जिन्दगी पर असर डालने वाली सभी समस्याओं को ध्यान में रखकर पानी के बंटवारे की नये सिरे से प्लानिंग करनी होगी। यह प्लानिंग गाँव की जरूरत के आधार पर होगी और हर गाँव टोले में जितना भी पानी बरसता है, उसे पेयजल की मांग पूरी करने के बाद अन्य प्राथमिकताओं के अनुसार अन्य जरूरतों को पूरा करने विषयक फैसले करने होंगे। फैसलों में पेयजल के प्रावधान के बाद मछुआरों और भंडारों से रोजी-रोटी कमाने वाले लोगों के लिए पानी का आवंटन तय करना होगा। इसके बाद कृषि उत्पादन के लिये पानी का इन्तजाम होगा और खेती को टिकाऊ बनाने की दिशा में काम करना होगा। पानी के वर्णित इन्तजाम के बाद ही शेष जरूरतों यथा औद्योगिक उपयोग के लिये पानी, नगद फसलों के लिये पानी, बिजली पैदा करने के लिये पानी, नौकायन और मनोरंजन इत्यादि के क्रम में पानी के आंवटन पर फैसला करना होगा और फैसलों को कानूनी जामा पहनाना होगा।

(7) पानी रोको अभियान के तीसरे चरण में पानी के बंटवारे में सामाजिक न्याय और समानता का तत्व जोड़ना होगा। इस लक्ष्य को प्राप्त करने के लिये पानी के प्रबन्ध में समाज को जरूरी अधिकार सौंपने और उनको सौंपे अधिकारों के सम्बन्ध में जरूरी नियम कायदे बनाने होंगे। इसी के साथ सरकार और समाज के बीच बेहतर समझ बनाने और समन्वय के लिये सोच में जरूरी बदलाव लाने के लिये गंभीर प्रयास करने होंगे।

पानी रोकने अभियान के तीसरे चरण का मकसद हर गाँव टोले में बारह महीने पानी के क्षेत्र में आत्मनिर्भरता होना चाहिये। पहले दो चरणों में पानी के संरक्षण और संवर्धन पर ध्यान केन्द्रित किया गया था। अब समय आ गया है जब इस काम के साथ-साथ उसके बंटवारे और प्रबंध से समाज के अधिकार और सामाजिक न्याय को कानूनी आधार प्रदान किया जावे। जलसंकट से निपटने के लिये जल उपयोग की प्राथमिकतायें तय की जावें। इसके लिये उपयुक्त जल-नीति सही दृष्टिबोध और सरकारी मुहकमों के बीच तालमेल और समन्वित प्रयासों को बेहतर बनाना होगा। यह सारा काम माइक्रो स्तर पर करना होगा तभी पानी रोको अभियान का मकसद पूरा होगा।

यमुना के लिए इंटरसेप्टर योजना की समीक्षा

सेंटर फॉर साइंस एंड इन्वायरॉनमेंट ने काफी नजदीक से इंटरसेप्टर योजना की छानबीन की और पाया कि यह हार्डवेयर योजना पूरी तरह पैसे की बर्बादी है। 2009-2012 के दौरान भारी निवेश योजनाओं के बावजूद नदी मृत ही रहेगी। दिल्ली जल बोर्ड ने यमुना प्रदूषण की समस्याओं के लिए रामबाण के रूप में इंटरसेप्टर परियोजना को प्रोजेक्ट किया है। इस परियोजना की विस्तृत रिपोर्ट के विश्लेषण से यह स्पष्ट होता है कि जिस रूप में इसे तैयार किया गया है,उसका परिणाम एक स्वच्छ नदी में नहीं दिखता है। इसके कारण नालियों में अधिक पैसा बहेगा।

यह प्रयास केंद्रीय पर्यावरण और वन मंत्रालय द्वारा चलाए गए यमुना एक्शन प्लान की आलोचना के बाद दिल्ली जल बोर्ड ने शुरू किया था। अब तक इस परियोजना में दिल्ली सरकार ने 1500 करोड़ रुपए से अधिक सिर्फ दिल्ली की 50 फीसदी आबादी को अपने सीवरेज नेटवर्क से जोडने के लिए खर्च किया है। दिल्ली के पास सबसे बड़ी सीवरेज सुविधा है-6000 किलोमीटर सेवेर्स और प्रति दिन 2330 मिलियन लीटर मलजल उपचार की क्षमता।

सीएसई ने अपनी रिपोर्ट “सीवेज कैनाल- हाउ टू क्लीन यमुना ” में इशारा किया है कि नदी की सफाई के लिए हमारे दृष्टिकोण में बदलाव की जरूरत है। एक ऐसा दृष्टिकोण जो मानक हार्डवेयर-नाला और एसटीपी-दृष्टिकोण से अलग हो। ऐसी योजना जो पानी, मल और प्रदूषण के बीच संबंधों को और सबसे महत्वपूर्ण प्रामाणिक आंकडों की जरूरत को समझती हो।

यमुना का दर्द

यमुना शुद्धि की मांग को लेकर पूरे पश्चिमी उत्तर प्रदेश में जनभावनाएं प्रबल होती जा रही हैं। यह एक शुभ संकेत है। पर क्या मात्र संकल्प लेने भर से हम यमुना को शुद्ध कर पाएंगे? इस पर गहराई से सोचने की जरूरत है। यमुना शुद्धि का संकल्प लेने वालों की लंबी जमात है। पर इनमें से कितने लोग ऐसे हैं, जिनके पास यमुना की गंदगी के कारणों का संपूर्ण वैज्ञानिक अध्ययन उपलब्ध है? ऐसे कितने लोग हैं, जिन्होंने दिल्ली से लेकर इलाहाबाद तक यमुना के किनारे पड़ने वाले शहरों के सीवर और सॉलिड वेस्ट के आकार-प्रकार, सृजन व उत्सर्जन का अध्ययन कर यह जानने की कोशिश की है कि इन शहरों की गंदगी कितनी है और अगर इसे यमुना में गिरने से रोकना है, तो उसके लिए क्या आवश्यक आधारभूत ढांचा, मानवीय व वित्तीय संसाधन उपलब्ध हैं?

हम मथुरा के ध्रुव टीले के नाले पर बोरी रखकर उसे रोकने का प्रयास करें और उस नाले में आने वाले गंदे पानी को ट्रीट करने या डाइवर्ट करने की कोई व्यवस्था न करें, तो यह केवल नाटक बनकर रह जाएगा। ठीक उसी तरह, जिस तरह यमुना के किनारे खड़े होकर संत समाज यमुना शुद्धि का संकल्प तो ले, पर उन्हीं के आश्रम-भंडारों में नित्य प्रयोग होने वाली प्लास्टिक की बोतलें, गिलास, लिफाफे, थर्मोकोल की प्लेटें या दूसरे कूड़े को रोकने की कोई व्यवस्था ये संत न करें। ऐसा करने के लिए जरूरी है, मानसिकता में बदलाव। डिटर्जेंट से कपड़े और बरतन धोकर हम यमुना शुद्धि की बात नहीं कर सकते। आखिर कितने लोग यमुना के प्रदूषण को ध्यान में रखकर अपनी दिनचर्या और जीवन-शैली में बुनियादी बदलाव करने को तैयार हैं?

राधारानी ब्रज चौरासी कोस की अनेक यात्राओं के दौरान हमने देखा कि यमुना तल में एक मीटर से भी अधिक मोटी तह पॉलिथीन, टूथपेस्ट, साबुन के रैपर, टूथब्रश, रबड़ की टूटी चप्पलें, खाद्यान्न के पैकिंग बॉक्स, खैनी के पाउच जैसे उन सामानों से भरी पड़ी है, जिनका उपयोग यमुना के किनारे रहने वाले करते हैं। जितना बड़ा आदमी या आश्रम या गेस्ट हाउस या कारखाना हो, यमुना में उतना ही ज्यादा उत्सर्जन।

नदी प्रदूषण के मामले में प्रधानमंत्री के सलाहकार मंडल के सदस्यों से बात करके मैंने जानना चाहा कि यमुना शुद्धि के लिए उनके पास लागू किए जाने योग्य ऐक्शन प्लान क्या है? उत्तर मिला कि देश के सात आईआईटी को मिलाकर एक संगठन बनाया गया है, जो डीपीआर (विस्तृत परियोजना रिपोर्ट) तैयार करेगा। उसके बाद सरकार पर दबाव डालकर इसे लागू करवाया जाएगा। यह पूरी प्रक्रिया ही हास्यास्पद है। भारत सरकार के मंत्रालय बीते छह दशकों से इन समस्याओं के हल के लिए अरबों रुपये वेतन में ले चुके हैं और खरबों रुपये जमीन पर खर्च कर चुके हैं।

फिर चाहे शहरों का प्रबंधन हो या नदियों का, नतीजा हमारे सामने है। यमुना सहनशीलता की सारी हदें पार कर बुरी तरह प्रदूषित होकर एक ‘मृत नदी’ घोषित हो चुकी है। यह सही है कि आस्थावानों के लिए वह यम की बहन, भगवान श्रीकृष्ण की पटरानी और हम सबकी माता सदृश्य है। पर क्या हम नहीं जानते कि समस्याओं का कारण सरकारी लालफीताशाही, भ्रष्टाचार और अविवेकपूर्ण नीति निर्माण ही है? इसलिए यमुना प्रदूषण की समस्या का हल सरकार नहीं कर पाएगी। उसने तो राजीव गांधी के समय में यमुना की शुद्धि पर सैकड़ों करोड़ रुपये खर्च किए ही थे, पर नतीजा वही ढाक के तीन पात।

इसलिए यमुना शुद्धि की पहल, तो लोगों को ही करनी होगी। जिसके लिए चार स्तर पर काम करने की जरूरत है। हर शहर में समझदार लोग साथ बैठकर पहले, अपने शहर की गंदगी को मैनेज करने का वैज्ञानिक और लागू किए जाने योग्य मॉडल विकसित करें। दूसरे कदम के रूप में युवाशक्ति को जोड़कर इस मॉडल को लागू करवाएं। तीसरा, इस मॉडल के क्रियान्वयन के लिए आवश्यक धनराशि संग्रह करने या सरकार से निकलवाने का काम करें और फिर यमुना जी के प्रति श्रद्धा एवं आस्था रखने वाले आम लोग जनांदोलन के माध्यम से समाज में चेतना फैलाने का काम करें।

दो वर्ष पहले दिल्ली के एक बहुत बड़े अनाज निर्यातक मुझे पश्चिमी दिल्ली के अपने हजारों एकड़ के खेतों में ले गए, जहां बड़े वृक्षों वाले बगीचे भी थे। अचानक मेरे कानों में बहते जल की कल-कल ध्वनि पड़ी, तो मैंने चौंककर पूछा कि क्या यहां कोई नदी है? कुछ आगे बढ़ने पर हीरे की तरह चमकते बालू के कणों पर शीशे की तरह साफ जल वाली नदी दिखाई दी। मैंने उसका नाम पूछा, तो उन्होंने खिलखिलाकर कहा, ‘अरे ये तो यमुना जी हैं।’ यह स्थान दिल्ली में यमुना में गिरने वाले नजफगढ़ नाले से जरा पहले था। यानी दिल्ली में प्रवेश करते ही यमुना अपना स्वरूप खो देती है और एक गंदे नाले में बदल जाती है। यमुना में 70 फीसदी गंदगी केवल दिल्लीवालों की देन है। इसलिए यमुना मुक्ति आंदोलन चलाने वाले लोगों को सबसे ज्यादा दबाव दिल्लीवासियों पर बनाना चाहिए। उन्हें झकझोरना चाहिए और मजबूर करना चाहिए कि वे अपना जीवन-ढर्रा बदलें तथा गंदगी को या तो खुद साफ करें या अपने इलाके तक रोककर रखें। उसे यमुना में न जाने दें।

रोजाना 10 हजार से ज्यादा दिल्लीवासी वृंदावन आते हैं। इसलिए यमुना किनारे संकल्प लेने से ज्यादा प्रभावी होगा, अगर हम इन दिल्लीवालों के आगे पोस्टर और परचे लेकर खड़े हों और उनसे पूछें कि तुम बांके बिहारी का आशीर्वाद लेने तो आए हो, पर लौटकर उनकी प्रसन्नता के लिए यमुना शुद्धि का क्या प्रयास करोगे? इस एक छोटे से कदम से भी शुरुआत की जा सकती है।

इस खबर के स्रोत का लिंक: 

पानीदार लोग

पानी बचाने का संकल्प भी कैसा है। जैसे खराब परीक्षा परिणाम के बाद अगले सत्र के पहले दिन से हाड़तोड़ पढ़ाई का संकल्प..जैसे बीमारी के बाद संयमित जीवन का संकल्प..दफ्तर में समय पर आने का संकल्प..नशे की लत को छोड़ देने का संकल्प..

जल संकट के दिनों में हर कोई सोचता है कि अब पानी की बर्बादी न होने देंगे। चिंता ऐसी दिखाई जाती है कि जैसे इस बार बारिश की बूँद-बूँद सहेज ली जाएगी। लेकिन गर्मियाँ जाते ही पानी बचाने का संकल्प भी हवा हो जाता है। सहज पानी मिलता है तो संकट के दिनों को बिसरा कर इंसान पानी का दुरुपयोग शुरु कर देता है।

संकल्प की इस कमजोरी के बीच दृढ़ इरादों के धनी भी मौजूद हैं। राजस्थान के भादरा रेलवे स्टेशन पर बाल्टी लेकर यात्रियों को पानी पिला रहे नन्दलाल सिंह राठौड़ हों या एक खुरपी से तालाब खोद लेने का हौसला रखने वाले बिहार के कमलेश्वरी सिंह, समाज में पानीदार लोगों की कमी नहीं है जो अपने संकल्प को निभा लेने की अनूठी मिसाल हैं। श्री राठौड़ बीते 60 सालों से रेलवे स्टेशन पर पानी पिला कर यात्रियों की प्यास बुझा रहे हैं तो कमलेश्वरी सिंह ने बुढ़ापे में सात सालों तक अकेले खुरपी के सहारे तालाब खोद दिया। इटारसी के पास तारमखेड़ा में आदिवासियों ने बहते पानी को रोक कर अपने लिए जलस्रोत तैयार कर लिया। ये गाथाएँ इतिहास के पन्नों से नहीं ली गई हैं, बल्कि ये हमारे आस-पास के लोगों के शौर्य का वृत्तांत है। खामोशी से काम कर रहे ये पानीदार लोग असल में उस संकल्प को जी रहे हैं जिसे हम समस्या से मुक्त होते ही भुला देते हैं।


खुरपी से खोदा तालाब


बूँद-बूँद से सागर कैसे भरता है इसकी मिसाल बिहार के माणिकपुर गाँव में देखी जा सकती है। पटना से करीब सौ किलोमीटर दूर इस गाँव के कमलेश्वरी सिंह ने सात साल तक अकेले ही खुरपी और बाल्टी की मदद से 60 फीट लंबा-चौड़ा और 25 फीट गहरा तालाब खोद डाला। 63 साल के कमलेश्वरी की तुलना दशरथ मांझी से होने लगी है जिन्होंने अकेले ही पहाड़ काटकर सड़क बनाने का असाधारण कारनामा कर दिखाया था।

कमलेश्वरी की उपलब्धि कई मायनों में असाधारण है। तेज धूप में पसीने से तरबतर एक इंसान को छोटी सी खुरपी के साथ खुदाई करते देखकर पूरा गाँव हंसता था। 15 साल पहले उनके पास 12 बीघा जमीन हुआ करती थी। लेकिन गैंगवार में उनके बड़े बेटे की हत्या कर दी गई और उसके बाद कमलेश्वरी कानूनी लड़ाई के जाल में कुछ ऐसा उलझे कि इसका खर्च उठाने के लिए उन्हें सात बीघा जमीन बेचनी पड़ी। अदालतों के चक्कर से उकताए कमलेश्वरी ने एक दिन अचानक फैसला किया कि केस रफादफा कर किसी रचनात्मक चीज पर ध्यान लगाया जाए। क्या करना है ये सोचने में देर नहीं लगी और 1996 की गर्मियों में कमलेश्वरी ने घर के पास अपने खेत में तालाब के लिए खुदाई शुरू कर दी। खुदाई के लिए उन्होंने खुरपी इसलिए चुनी क्योंकि फावड़ा भारी होने के कारण उससे काम करना मुश्किल था। खुरपी से मिट्टी खोदी जाती और बाल्टी में बरकर उसे फेंका जाता सुबह छह बजे से शाम के सात बजे तक काम चलता रहता था।

सात साल की मेहनत के बाद आखिरकार तालाब तैयार हो ही गया। आज गर्मियों में भी तालाब में इतना पानी रहता है कि गाँव को नहाने, कपड़े धोने और जानवरों के लिए पानी का इंतजाम करने की चिंता नहीं होती।

60 सालों से जलसेवा


‘जल पी लो, जल पी लो’ की मनुहार राजस्थान के हनुमानगढ़ जिले के भादरा रेलवे स्टेशन पर हर गाड़ी के आने पर सुनाई देती है। तापती दोपहरी में लू भरे थपेड़े हों या हाड़ कंपा देने वाली सर्दी या फिर बारिश। स्काउट की वेशभूषा में बाल्टी लिए एक बुजुर्ग यहाँ हर मौसम में नजर आ जाएंगे। पड़ोसी गाँव सिकरोड़ी के 83 वर्षीय पूर्व जिला स्काउट मास्टर नन्दलाल सिंह राठौड़ यह जल सेवा पिछले 60 वर्षों से करते आ रहे हैं। उन्होंने कस्बे में सैकड़ों पौधों को पनपाया है। 1957 में सरकारी शिक्षक के पद पर नियुक्त हुए नंदलालजी के जीवन में जल सेवा प्रारम्भ होने के पीछे की कहानी भी दिलचस्प है। वे बताते हैं वर्ष 1951 में श्रीगंगानगर से वे स्काउटिंग का प्रशिक्षण लेकर लौट रहे थे। स्टेशन पर खाना खाकर जल्दबाजी में गाड़ी पर चढ़े तो पानी भूल गए। अगले छह-सात स्टेशनों पर कहीं भी पानी नहीं मिला। प्यास से बुरा हाल हो गया। उन्होंने उसी दिन प्रण लिया कि जब तक वे स्वस्थ्य और जीवित रहेंगे, भादरा स्टेशन से किसी यात्री को प्यासा नहीं गुजरने देंगे।

शिक्षण कार्य और जल सेवा का जज्बा उनके लिए घरेलू जिम्मेदारियों से कम महत्व का नहीं रहा। इसका अनुपम उदाहरण देखने को मिला उनकी बेटी की शादी के दौरान 22 फरवरी 1979 की शाम को उनकी पुत्री मोहन कंवर की बारात पहुंचने वाली थी। तभी शाम 7 बजे स्टेशन पर ट्रेन पहुंचने का समय भी हो गया। नन्दलाल सिंह तो बेटी की शादी छोड़कर मानव सेवा के निर्वहन के लिए चल पड़े। उनके छोटे भाई नारायण सिंह ने बारात आने की बात कह कर उन्हें रोकने की कोशिश की लेकिन वे यह कर चले गए कि बारात तो कुछ समय इन्तजार कर सकती है लेकिन ट्रेन तो नहीं रुकेगी।
Source: 
विकास संवाद द्वारा प्रकाशित 'पानी' किताब
Author: 
पंकज शुक्ला

समझाती रही नानी पानी की कहानी

Source Dainik Bhaskar  25 March

Kattampally wetland to find place in Ramsar list

KANNUR: Kattampally wetland area in Kannur district, known for its migratory bird sanctuary, is likely to be included in the Ramsar List of Wetlands of International Importance. The district panchayat has proposed the area to the state government for designation under the Ramsar Convention. The Ramsar Convention is an intergovernmental treaty which provides the framework for national action and international cooperation for the conservation and wise use of wetlands and their resources. The treaty was adopted in the Iranian city of Ramsar in 1971, and the convention’s member countries cover all geographic regions of the planet. The 3,000 acres of wetland in Kattampally, spread over eight panchayats, has already been recognised as an Important Bird Area (IBA) by the Bird Life International (BLI). If selected, Kattampally will be the fourth wetland area in the state — after Vembanad Lake, Ashtamudi and Sasthamkotta — to be included in the Ramsar list. The ecological system of Kattampally, which is well-known for wetland birds, is facing serious threat with various constructions and reclamation of land taking place in the area recently. Inclusion of the site in the Ramsar list will bring international recognition and it will be protected under the Ramsar norms. The site will be under the direct supervision of the international body and it would get economic and expertise aid as well. The Kerala State Council for Science, Technology and Environment (KSCSTE) is the responsible body in the state for the project. The proposal will be submitted to the Ramsar Convention by the Union Environment Ministry.  “The proposal to include Kattampally in the Ramsar list is a welcome move as it will help to protect the ecological system of the wetland, which is home to several migratory birds,” said Khalil Chovva, North Kerala chapter president of the Organization for Industrial, Spiritual and Cultural Advancement (OISCA).Various studies conducted by bird watchers since 1979 reveal that more than 20,000 migratory birds of 80 categories have been found in the area. Kattampally — an asylum to endangered species of greater and lesser spotted eagles, steppe, imperial and booted eagles listed in the Red Data Book of International Union for Conservation of Nature — has already been identified as a sanctuary for rare species of migratory birds from Eurasia and Himalayan areas.Last year, bristled grass bird was spotted at Kattampally for the first time in South India. Many other rare species like spotted red shank, various kinds of buntings, Eurasian Wigeon, Galdwall duck and Ferruginous Pochard are found here during the November-March period. Teals and ducks from Siberia are common migratory birds visiting Kattampally during the period.  ‘Kaipad’ farming in these areas is seen as a positive sign for the migration of vast species of birds.
source http://expressbuzz.com/states/kerala/kattampally-wetland-to-find-place-in-ramsar-list/256278.html

Saturday, March 19, 2011

जल नहीं होता तो तीर्थ नहीं होते

जल नहीं होता तो तीर्थ नहीं होते। वे तीर्थ जहां पर हम जाकर अपना लोक और परलोक दोनों संवारते हैं। तीर्थ ही हैं जहां मौजूद जल में स्नान कर हम अपने पापों का शमन करते हैं और संसार सागर को पार करने की ऊर्जा ग्रहण करते हैं। जल नहीं होता तो शायद तीर्थ की अवधारणा ही विकसित नहीं हुई होती। तीर्थ शब्द का आशय ही है जल की ओर जाने वाली सीढिय़ां। अर्थात जल था तो सीढिय़ां बनीं, घाट बने और बाद में उन घाटों पर मंदिरों, देवालयों का निर्माण हुआ।

यह जाना-माना तथ्य है कि पूरी दुनिया में मानव संस्कृति का विकास जलस्रोतों के निकट हुआ है। नदियों, तालाबों या समुद्र के किनारे बड़े-बड़े नगर बसे और मानव संस्कृति विकास की ओर अग्रसर होती गई। पुराने लोग सयाने थे, वे जानते थे कि यदि जल नहीं होगा तो कल नहीं होगा। इसीलिए उन्होंने जल को धर्म से जोड़ा। जल के किनारे नगर बसे और लोग जलस्रोतों पर एकत्र होने लगे तो जल की शुद्धता, पवित्रता की रक्षा तथा उसके संरक्षण और संवर्धन के उद्देश्य से पुराने लोगों ने वहां देवालय बनाए। इसी भाव से कि जो लोग इन जलतीर्थों पर आएं, वे जल की महत्ता को समझें। देवताओं की साक्षी में जल संरक्षण का संकल्प लें।

यही कारण है कि भारत की प्राय: सभी नदियों और जलस्रोतों पर स्थित तीर्थ भूमियों में पर्यटन के निमित्त आने वाले लोगों को इन नदियों के घाटों पर बैठने वाले पंडे-पुरोहित सदियों से संकल्प दिला रहे हैं। यह संकल्प भी जल से दिलाया जाता है। यदि जल नहीं होता तो लोग नहीं आते, संकल्प नहीं होते। आज हम भी एक संकल्प लें कि सूखी होली खेलकर जल का संरक्षण करेंगे।


यासु राजा वरुणो यासु सोमो, विश्वेदेवा यासूर्जं मदन्ति।

वैश्वानरो यास्वग्नि: प्रविष्टस्ता आपो देवीरिह मामवन्तु॥

ऋग्वेद- 7.49.4

जिन जलधाराओं में राजा वरुण, सोम, सभी देवगण भरपूर आनंदित होते हैं, जिनके अंतर में वैश्वानर अग्नि समाया है वे जल देवता इस धरती पर हमारी रक्षा करें।


Source- Dainik Bhaskar 17 March 2011
http://religion.bhaskar.com/article/holi--if-water-does-not-contain-shrine-1936918.html#comment

जल और जमीन के लिए लड़ाई

पानी का अर्थशास्त्र
पानी को लेकर देशों के बीच लड़ाई तो सुर्खियां बनेंगी, लेकिन शहरों और खेतों के बीच पानी की लड़ाई चुपचाप चल रही है। पानी का अर्थशास्त्र किसानों के पक्ष में नहीं है।
वह दिन दूर नहीं, जब खेती के लिए जमीन और पानी को लेकर समाज में एक नई लड़ाई छिड़ेगी। विश्व में प्रति व्यक्ति जल की मात्रा तेजी से घट रही है। उस पर जनसंख्या लगातार बढ़ रही है। दोनों ही बातें आने वाले दिनों में दुनिया में विस्फोटक हालात का निर्माण कर देंगी। एक समय दस-दस कमरों की आलीशान कोठियां तो लोगों के पास होंगी, लेकिन पीने के लिए पानी नहीं मिलेगा। जेब में पैसा तो इफरात होगा, लेकिन खरीदने के लिए मंडियों में अनाज नहीं होगा।
विश्व में १९७५ से २००० के बीच कुल सिंचित क्षेत्र में तीन गुना बढ़ोतरी हुई थी। लेकिन उसके बाद विस्तार की गति मंद हो गई। संभव है जल्द ही सिंचित क्षेत्र घटना शुरू हो जाए। कई देशों में जलस्तर मानक से काफी नीचे जा चुका है। जहां-जहां सिंचाई प्रणाली भूगर्भ जल पर निर्भर है, वे पहले ही खतरे में हैं। भारत इसका अहम उदाहरण है। दूसरी ओर, खाद्यान्न उत्पादन के लिए आवश्यक जल की मात्रा को भी नजरअंदाज नहीं किया जा सकता। चाय, कॉफी, जूस इत्यादि के जरिए हम प्रतिदिन औसतन चार लीटर पानी पीते हैं। लेकिन जो खाना हम प्रतिदिन खाते हैं, उसके उत्पादन के लिए २००० लीटर पानी की आवश्यकता होती है। यानी हमारी पेय आवश्यकता का ५०० गुना पानी खाद्य उत्पादन में खर्च हो जाता है। विश्व में खाद्य संकट गहराने के दो मुख्य कारण हैं। पहला, भूमि क्षरण और दूसरा, घटते जलस्रोत। बढ़ती जनसंख्या और घटती खेती योग्य भूमि के कारण अधिकांश देश खाद्यान्न आयात को मजबूर हो गए हैं। बड़ी-बड़ी मशीनों से लगातार धरती के पानी को उलीचना प्रकृति के संतुलन को बिगाड़ रहा है। खाद्य और पानी के बीच लगातार बिगड़ते संतुलन के मद्देनजर
वह दिन दूर नहीं, जब खेती के लिए जमीन और पानी को लेकर समाज में एक नई लड़ाई छिड़ेगी। विश्व में प्रति व्यक्ति जल की मात्रा तेजी से घट रही है। उस पर जनसंख्या लगातार बढ़ रही है। दोनों ही बातें आने वाले दिनों में दुनिया में विस्फोटक हालात का निर्माण कर देंगी। एक समय दस-दस कमरों की आलीशान कोठियां तो लोगों के पास होंगी, लेकिन पीने के लिए पानी नहीं मिलेगा। जेब में पैसा तो इफरात होगा, लेकिन खरीदने के लिए मंडियों में अनाज नहीं होगा।
विश्व में १९७५ से २००० के बीच कुल सिंचित क्षेत्र में तीन गुना बढ़ोतरी हुई थी। लेकिन उसके बाद विस्तार की गति मंद हो गई। संभव है जल्द ही सिंचित क्षेत्र घटना शुरू हो जाए। कई देशों में जलस्तर मानक से काफी नीचे जा चुका है। जहां-जहां सिंचाई प्रणाली भूगर्भ जल पर निर्भर है, वे पहले ही खतरे में हैं। भारत इसका अहम उदाहरण है। दूसरी ओर, खाद्यान्न उत्पादन के लिए आवश्यक जल की मात्रा को भी नजरअंदाज नहीं किया जा सकता। चाय, कॉफी, जूस इत्यादि के जरिए हम प्रतिदिन औसतन चार लीटर पानी पीते हैं। लेकिन जो खाना हम प्रतिदिन खाते हैं, उसके उत्पादन के लिए २००० लीटर पानी की आवश्यकता होती है। यानी हमारी पेय आवश्यकता का ५०० गुना पानी खाद्य उत्पादन में खर्च हो जाता है। विश्व में खाद्य संकट गहराने के दो मुख्य कारण हैं। पहला, भूमि क्षरण और दूसरा, घटते जलस्रोत। बढ़ती जनसंख्या और घटती खेती योग्य भूमि के कारण अधिकांश देश खाद्यान्न आयात को मजबूर हो गए हैं। बड़ी-बड़ी मशीनों से लगातार धरती के पानी को उलीचना प्रकृति के संतुलन को बिगा
वह दिन दूर नहीं, जब खेती के लिए जमीन और पानी को लेकर समाज में एक नई लड़ाई छिड़ेगी। विश्व में प्रति व्यक्ति जल की मात्रा तेजी से घट रही है। उस पर जनसंख्या लगातार बढ़ रही है। दोनों ही बातें आने वाले दिनों में दुनिया में विस्फोटक हालात का निर्माण कर देंगी। एक समय दस-दस कमरों की आलीशान कोठियां तो लोगों के पास होंगी, लेकिन पीने के लिए पानी नहीं मिलेगा। जेब में पैसा तो इफरात होगा, लेकिन खरीदने के लिए मंडियों में अनाज नहीं होगा।

विश्व में १९७५ से २००० के बीच कुल सिंचित क्षेत्र में तीन गुना बढ़ोतरी हुई थी। लेकिन उसके बाद विस्तार की गति मंद हो गई। संभव है जल्द ही सिंचित क्षेत्र घटना शुरू हो जाए। कई देशों में जलस्तर मानक से काफी नीचे जा चुका है। जहां-जहां सिंचाई प्रणाली भूगर्भ जल पर निर्भर है, वे पहले ही खतरे में हैं। भारत इसका अहम उदाहरण है। दूसरी ओर, खाद्यान्न उत्पादन के लिए आवश्यक जल की मात्रा को भी नजरअंदाज नहीं किया जा सकता। चाय, कॉफी, जूस इत्यादि के जरिए हम प्रतिदिन औसतन चार लीटर पानी पीते हैं। लेकिन जो खाना हम प्रतिदिन खाते हैं, उसके उत्पादन के लिए २००० लीटर पानी की आवश्यकता होती है। यानी हमारी पेय आवश्यकता का ५०० गुना पानी खाद्य उत्पादन में खर्च हो जाता है। विश्व में खाद्य संकट गहराने के दो मुख्य कारण हैं। पहला, भूमि क्षरण और दूसरा, घटते जलस्रोत। बढ़ती जनसंख्या और घटती खेती योग्य भूमि के कारण अधिकांश देश खाद्यान्न आयात को मजबूर हो गए हैं। बड़ी-बड़ी मशीनों से लगातार धरती के पानी को उलीचना प्रकृति के संतुलन को बिगाड़ रहा है। खाद्य और पानी के बीच लगातार बिगड़ते संतुलन के मद्देनजर एक बड़ा सवाल ये पैदा हो रहा है कि हम आने वाली पीढ़ी के लिए क्या तैयार कर रहे हैं।

पानी का स्तर कैसे गिरता जा रहा है और खेती कैसे मुसीबत बन गई है, इसका सबसे नाटकीय उदाहरण है सऊदी अरब। वहां पहले ही धरती के नीचे पानी कम था, तेल ज्यादा। ७० के दशक में जब उसने तेल निर्यात पर विवादास्पद पाबंदी लगाई, तभी उसे लगा कि कहीं गेहूं आयात पर भी पाबंदी न लगा दी जाए। लिहाजा उसने गेहूं उगाने का फैसला किया, जो सिंचाई के लिए पूरी तरह भूगर्भ जल पर निर्भर था। २० सालों में पंपिंग मशीनों से भूगर्भ जल का दोहन कर सऊदी अरब गेहूं के मामले में तो आत्मनिर्भर हो गया, लेकिन पानी के मामले में कंगाली मुंह ताकने लगी। पता चला कि उनके तमाम जलस्रोत नष्ट होने की कगार पर हैं। अब उसने २०१६ तक हर साल कृषि उत्पादन १/८ घटाने का निर्णय लिया है। लेकिन यह पहला देश था, जिसने खुलकर घटते जलस्तर की चर्चा की और साहसिक कदम उठाया।

भारत भी इस समस्या से दो-चार हो रहा है। यहां अनाज खपत और भंडारण का अनुपात बहुत कम है। करीब १० करोड़ किसान पानी के लिए लगभग २ करोड़ कुओं का दोहन कर रहे हैं। एक रिपोर्ट के

सूखी होली खेलें, जल और प्रकृति को बचाएं

जल के बिना जीवन असंभव है। यह हम सभी जानते हैं इसके बाद भी जल का जमकर दुरुपयोग करते हैं। होली भी ऐसा ही मौका है जब सबसे ज्यादा जल की बर्बादी होती है। होली त्योहार प्रतीक है श्रृंगारित प्रकृति के स्वागत करने का। जल का दुरुपयोग कर हम इस पवित्र त्योहार का अर्थ ही बदल देते हैं क्योंकि जल के अभाव में प्रकृति का श्रृंगार ही अधूर होगा। इस होली पर हम संकल्प लें कि सूखी होली खेलकर अपने नैतिक कर्तव्यों का पालन करेंगे तथा जल के दुरुपयोग पर रोक लगाएंगे। हमारे धर्मग्रंथों में भी जल के महत्व का वर्णन मिलता है। ऋग्वेद में वर्णित जल के महत्व का वर्णन इस प्रकार है-

जीवन का दूसरा नाम जल है। जल नहीं होगा तो जीवन समाप्त हो जाएगा। यह सृष्टि और इस सृष्टि के सबसे सुंदर रूप अर्थात मनुष्य का निर्माण भी जल के सम्मिश्रण से हुआ है। पंचमहाभूत जिनसे सृष्टि और हम बने हैं, उनमें जल प्रमुख है। धरती, आकाश, वायु, अग्नि और जल में केवल जल को ही जीवन की संज्ञा दी गई है। धरती पर भी पचहत्तर फीसदी से ज्यादा जल है और मनुष्य के शरीर में भी सत्तर फीसदी से ज्यादा जल की ही सत्ता है। हम भोजन के बगैर जीवित रह सकते हैं किंतु जल के बगैर जीवन की परिकल्पना संभव नहीं है।

जल ही है जिसकी सत्ता धरती से लेकर आकाश तक है। धरती के भीतर भी जल है और आकाश से भी वह अमृत के रूप में बरसता है। समुद्र मंथन की कथा जिसका लक्ष्य अमृत पाना था, जल से ही जुड़ी है। यही कारण है हमारे धर्मग्रंथ एक कुएं के निर्माण का फल सौ अश्वमेध यज्ञों पर भारी बताते हैं। आइए इस होली पर जल का संरक्षण करें और सूखी होली खेलकर दूसरों को भी इसके लिए प्रेरित करें।


या आपो दिव्या उत वा स्रवन्तिखनित्रिमा उत वा या: स्वयंजा:।

समुद्रार्था या: शुचय: पावका-स्ता आपो देवी रिह मामवंतु॥

ऋग्वेद- 7.49.2
जो जल आकाश से आता है जो जल धरती पर बहता है, जो जल खोदने से मिलता है। अथवा वह जो स्वयं फूट पड़ा (झरना) है। समुद्र के लिए प्रस्थान करने वाली पवित्र जल की देवी इस धरती पर हमारी रक्षा करें।

जल ही अमृत है, इसे व्यर्थ न बहाएं

ल अमृत ही है। अमृत का अर्थ है जिसे पी कर व्यक्ति मृत न हो। आशय है वह जीवित रहे। अर्थात् जल होगा तो हम मृत न होंगे। सनातन धर्म के शास्त्रों में समुद्र मंथन की कथा विस्तार से आती है। यह मंथन देवों और दानवों ने मिलकर किया था। उद्देश्य था अमृत को पाना। यह अमृत जल से ही और जल रूप में ही आया। सागर अर्थात् गहन जल राशि को जब मथा गया तो अमृत से पहले कई रत्न निकले। इनकी संख्या कुल 14 थी। इनमें लक्ष्मी, कौस्तुभ मणि, पारिजात पुष्प, वारुणी, धन्वंतरि, चंद्रमा, विष, सारंग धनुष, पांचजन्य शंख, कामधेनु गाय, रंभा, उच्चै:श्रवा अश्व, ऐरावत हाथी और अंत में अमृत शामिल था।

जल था तो लक्ष्मी है। लक्ष्मी है तो जगत् का सारा वैभव है। जल न होता तो शायद लक्ष्मी न होती। लक्ष्मी न होती तो संसार की श्री न होती। न सारा कार्य-व्यापार सुगम हो पाता। धन्वंतरि भी जल से प्रकटे अर्थात सभी का आरोग्य जल से व्यक्त हुआ। जल न होता तो औषधियां भी न होतीं। रोग होते तो उनके निदान के साधन सुलभ न होते। इन रत्नों का दाता होने के कारण ही सागर का एक नाम रत्नाकर भी है। जल रत्नदाता है, अमृतदाता है और अमृत तो है ही। इसीलिए जल व्यर्थ बहाना अमृत बहाने के समान है। होली पर हम इस बात का विशेष ध्यान रखें कि एक बूंद भी अमृत (जल) व्यर्थ न बहे।


आपो ज्योती: रसोमृतंब्रह्म भूर्भुव: स्वरोम्।

जल ऊर्जा है, रस है, अमृत है तथा ब्रह्मांड में व्याप्त पृथ्वी, अंतरिक्ष और आकाश है।

शुक्ल यजुर्वेद

पानी की हर बूंद मांगेगी हिसाब

शहरों में घरों से निकलने वाली गंदगी हो या फिर कारखानों का कचरा, उसे पानी में बहाकर नष्ट करना हमारी पुरानी आदत और व्यवस्था रही है। हम शहरों में नदियों का पानी लाते हैं और उसे कूड़े-करकट से प्रदूषित कर दोबारा नदियों में छोड़ देते हैं। कारखानों से निकलने वाला विषैला कूड़ा न सिर्फ नदियों व कुओं को प्रदूषित बना रहा है, बल्कि भूगर्भ जल को भी पीने लायक नहीं रहने दे रहा है।

वर्तमान में शहरों में मानव मल को साफ करने के लिए जिस तकनीक का इस्तेमाल हो रहा है, उसमें अत्यधिक मात्रा में पानी का प्रयोग किया जाता है। खासतौर पर सीवर प्रणाली में, जिसमें बिना किसी ट्रीटमेंट के उसे सीधे नदियों में बहाया जा रहा है। इस तरह के ‘फ्लश एंड फॉरगिव’ सिस्टम से जिन पोषक तत्वों को मिट्टी में मिलना चाहिए, वे आसपास के नजदीकी जलस्रोतों में जाकर नष्ट हो जाते हैं। इस तरह सिर्फ कृषि क्षेत्र के लिए पोषक तत्वों का ही नुकसान नहीं हो रहा, नदियों का अस्तित्व भी समाप्त हो रहा है। यह अतिप्रचलित तकनीक महंगी तो है ही, साथ ही पानी की बेइंतहा बर्बादी का जरिया भी है। यह तमाम तरह की बीमारियों का कारण भी बनती है। विश्वभर में खराब जलनिकासी व गंदगी के कारण हर साल करीब 20 लाख बच्चों की मौत होती है, जबकि 60 लाख बच्चों की मौत भूख व कुपोषण से होती है।

भारत में सेंटर फॉर साइंस एंड एनवायरमेंट (सीएसई) की प्रमुख सुनीता नारायण ने इस बात पर जोर दिया है कि पानी पर निर्भर फ्लश सिस्टम, खासतौर पर जलनिकासी प्रणाली न तो आर्थिक और न ही पर्यावरणीय दृष्टिकोण से उचित है। उन्होंने बताया है कि भारत में पांच सदस्यों वाला एक परिवार, जो अपने घर में वॉटर फ्लश वाला टॉयलेट इस्तेमाल करता है, मल बहाने के लिए साल भर में करीब 1.5 लाख लीटर पानी बर्बाद कर देता है। उन्होंने जोर देकर विस्तार से बताया है कि वर्तमान में जो फ्लश सिस्टम घरों में लगा है, उससे मल तो साफ हो जाता है और यह रोगमुक्त प्रणाली भी है, लेकिन इसमें बहुत बड़ी मात्रा में पानी की बर्बादी होती है और बड़े पैमाने पर प्रदूषण होता है सो अलग। भारत सरकार भी दूसरे बहुत से विकासशील देशों की तरह उन इलाकों में भी जहां फिलहाल यह व्यवस्था नहीं है, इसे ही स्थापित करने में जुटी है, जो आर्थिक दृष्टि से उचित नहीं है।

सौभाग्य से हमारे पास कम खर्च वाला एक अच्छा माध्यम भी उपलब्ध है। वह है कंपोस्ट टॉयलेट। इसमें पानी की बर्बादी नहीं होती, साथ ही इसको एक खाद निर्माण प्रणाली से भी जोड़ दिया जाता है। कुछ क्षेत्रों में तो मूत्र संग्रह प्रणाली भी अलग से लगाई जाती है और संगृहीत मूत्र को खेतों में डाल दिया जाता है, जो मिट्टी की उर्वरा क्षमता को बढ़ाता है। मानव मल भी सूखकर गंधहीन मिट्टी के स्वरूप का खाद बन जाता है, जिसे वापस खेतों में मिला दिया जाता है। यानी आवश्यक पोषक तत्व पुन: मिट्टी में मिल जाते हैं। इस प्रक्रिया के बाद मिट्टी को और किसी खाद की आवश्यकता नहीं होती। इस कंपोस्ट टॉयलेट प्रणाली में घरों में इस्तेमाल हो रही मौजूदा फ्लश प्रणाली की तुलना में पानी का इस्तेमाल भी नगण्य होता है। इस तरह से पानी का खर्च तो बचा ही सकते हैं, साथ ही भूगर्भ जल को उलीचकर पानी के भंडार को खत्म करने के अपराध से भी बच सकते हैं। यही नहीं, पानी के शुद्धीकरण में खर्च होने वाली ऊर्जा को भी बचा सकते हैं। इस विधि से अपशिष्टों को पानी में मिलने व धरती के पोषक तत्वों को नष्ट होने से भी रोका जा सकता है। हाल ही में अमेरिका की पर्यावरण सुरक्षा एजेंसी ने कंपोस्ट टॉयलेट बनाने वाली विभिन्न कंपनियों को इनके निर्माण व प्रयोग की मंजूरी दी है। अमेरिका के निजी आवासों और चीन के गांवों में भी इनका सुगमता से प्रयोग हो रहा है।

रोज जार्ज की किताब द बिग नेसेसिटी : दि एनेमेबल वर्ल्ड ऑफ ह्यूमन वेस्ट एंड व्हाय इट मैटर्स में इस बात का जिक्र है कि फ्लश सिस्टम वास्तव में बहुत सारी ऊर्जा का उपभोग करने वाली तकनीक है। इसके दो कारण हैं। पहला यह कि इसमें मल को बहाने के लिए बड़ी मात्रा में साफ पानी का प्रयोग होता है। दूसरा यह कि सीवेज सिस्टम चलाने के लिए बड़ी मात्रा में मानवीय ऊर्जा का भी नुकसान होता है। बहुत साल पहले तत्कालीन अमेरिकी राष्ट्रपति थियोडोर रूजवेल्ट ने कहा था कि सभ्य लोगों को मल निष्कासन के लिए पानी के प्रयोग के अलावा किसी दूसरे माध्यम का विकास करना चाहिए।

यदि दैनिक जीवन में प्रयोग किए जाने वाले पानी से टॉयलेट की फ्लश लाइन अलग हो जाएगी तो घरेलू प्रयोग के पानी को रिसाइकिल करना ज्यादा आसान हो जाएगा। शहरों में जल उत्पादन क्षमता बढ़ाने का सबसे सरल तरीका यही है कि हम प्रतिदिन इस्तेमाल किए जाने वाले पानी को रिसाइकिल यूनिट में शुद्ध करें और फिर उसका प्रयोग दैनिक जीवन में करें। इस तरह हम काफी मात्रा में पानी को सुरक्षित कर सकेंगे और उसकी बर्बादी रोक सकेंगे। दुनिया के कुछ शहरों में जहां पानी की सप्लाई कम होने लगी है और दाम भी बढ़ गया है, वहां लोगों ने उपयोग किए जा चुके पानी को रिसाइकिल करना शुरू कर दिया है। उदाहरण के लिए, सिंगापुर जो कि मलयेशिया से ऊंचे दामों पर पानी खरीदता है, अपने यहां इस्तेमाल किए जा चुके पानी को रिसाइकिल करता है। कैलिफोर्निया, लॉस एंजिल्स और साउथ फ्लोरिडा में भी रिसाइकिल प्लांट को मंजूरी दे दी गई है।

इसके अलावा घरों में भी पानी बचाने वाले उपकरणों का इस्तेमाल किया जा सकता है, जैसे शॉवर, डिश वॉशर और क्लोथ वॉशर इत्यादि। कुछ देशों में पानी की रक्षा के लिए कठोर मानकों पर आधारित घरेलू उपकरण ही बेचने व प्रयोग करने का प्रावधान किया गया है। पानी के दाम जैसे-जैसे बढ़ते जाएंगे, वैसे-वैसे कंपोस्ट टॉयलेट और ऊर्जा संरक्षित उपकरणों की मांग बढ़ेगी। समय के साथ इस बात की जागरूकता भी बढ़ेगी कि वर्तमान में घरों व कारखानों की गंदगी साफ करने के लिए प्रयोग की जा रही जलनिकासी प्रणाली व्यावहारिक नहीं है। पानी घटता जा रहा है और जनसंख्या बढ़ती जा रही है। ऐसे में यदि पानी के कम खर्च पर आधारित उपकरणों का इस्तेमाल चलन में नहीं आएगा, तो धरती पर मौजूद जलनिधि का संकट असाध्य हो जाएगा।

लेस्टर आर ब्राउन
लेखक विश्व पर्यावरण के शीर्षस्थ चिंतक और अर्थ पॉलिसी इंस्टीट्यूट के प्रमुख हैं।