पानी का अर्थशास्त्र पानी को लेकर देशों के बीच लड़ाई तो सुर्खियां बनेंगी, लेकिन शहरों और खेतों के बीच पानी की लड़ाई चुपचाप चल रही है। पानी का अर्थशास्त्र किसानों के पक्ष में नहीं है। |
वह दिन दूर नहीं, जब खेती के लिए जमीन और पानी को लेकर समाज में एक नई लड़ाई छिड़ेगी। विश्व में प्रति व्यक्ति जल की मात्रा तेजी से घट रही है। उस पर जनसंख्या लगातार बढ़ रही है। दोनों ही बातें आने वाले दिनों में दुनिया में विस्फोटक हालात का निर्माण कर देंगी। एक समय दस-दस कमरों की आलीशान कोठियां तो लोगों के पास होंगी, लेकिन पीने के लिए पानी नहीं मिलेगा। जेब में पैसा तो इफरात होगा, लेकिन खरीदने के लिए मंडियों में अनाज नहीं होगा। विश्व में १९७५ से २००० के बीच कुल सिंचित क्षेत्र में तीन गुना बढ़ोतरी हुई थी। लेकिन उसके बाद विस्तार की गति मंद हो गई। संभव है जल्द ही सिंचित क्षेत्र घटना शुरू हो जाए। कई देशों में जलस्तर मानक से काफी नीचे जा चुका है। जहां-जहां सिंचाई प्रणाली भूगर्भ जल पर निर्भर है, वे पहले ही खतरे में हैं। भारत इसका अहम उदाहरण है। दूसरी ओर, खाद्यान्न उत्पादन के लिए आवश्यक जल की मात्रा को भी नजरअंदाज नहीं किया जा सकता। चाय, कॉफी, जूस इत्यादि के जरिए हम प्रतिदिन औसतन चार लीटर पानी पीते हैं। लेकिन जो खाना हम प्रतिदिन खाते हैं, उसके उत्पादन के लिए २००० लीटर पानी की आवश्यकता होती है। यानी हमारी पेय आवश्यकता का ५०० गुना पानी खाद्य उत्पादन में खर्च हो जाता है। विश्व में खाद्य संकट गहराने के दो मुख्य कारण हैं। पहला, भूमि क्षरण और दूसरा, घटते जलस्रोत। बढ़ती जनसंख्या और घटती खेती योग्य भूमि के कारण अधिकांश देश खाद्यान्न आयात को मजबूर हो गए हैं। बड़ी-बड़ी मशीनों से लगातार धरती के पानी को उलीचना प्रकृति के संतुलन को बिगाड़ रहा है। खाद्य और पानी के बीच लगातार बिगड़ते संतुलन के मद्देनजर |
वह दिन दूर नहीं, जब खेती के लिए जमीन और पानी को लेकर समाज में एक नई लड़ाई छिड़ेगी। विश्व में प्रति व्यक्ति जल की मात्रा तेजी से घट रही है। उस पर जनसंख्या लगातार बढ़ रही है। दोनों ही बातें आने वाले दिनों में दुनिया में विस्फोटक हालात का निर्माण कर देंगी। एक समय दस-दस कमरों की आलीशान कोठियां तो लोगों के पास होंगी, लेकिन पीने के लिए पानी नहीं मिलेगा। जेब में पैसा तो इफरात होगा, लेकिन खरीदने के लिए मंडियों में अनाज नहीं होगा। विश्व में १९७५ से २००० के बीच कुल सिंचित क्षेत्र में तीन गुना बढ़ोतरी हुई थी। लेकिन उसके बाद विस्तार की गति मंद हो गई। संभव है जल्द ही सिंचित क्षेत्र घटना शुरू हो जाए। कई देशों में जलस्तर मानक से काफी नीचे जा चुका है। जहां-जहां सिंचाई प्रणाली भूगर्भ जल पर निर्भर है, वे पहले ही खतरे में हैं। भारत इसका अहम उदाहरण है। दूसरी ओर, खाद्यान्न उत्पादन के लिए आवश्यक जल की मात्रा को भी नजरअंदाज नहीं किया जा सकता। चाय, कॉफी, जूस इत्यादि के जरिए हम प्रतिदिन औसतन चार लीटर पानी पीते हैं। लेकिन जो खाना हम प्रतिदिन खाते हैं, उसके उत्पादन के लिए २००० लीटर पानी की आवश्यकता होती है। यानी हमारी पेय आवश्यकता का ५०० गुना पानी खाद्य उत्पादन में खर्च हो जाता है। विश्व में खाद्य संकट गहराने के दो मुख्य कारण हैं। पहला, भूमि क्षरण और दूसरा, घटते जलस्रोत। बढ़ती जनसंख्या और घटती खेती योग्य भूमि के कारण अधिकांश देश खाद्यान्न आयात को मजबूर हो गए हैं। बड़ी-बड़ी मशीनों से लगातार धरती के पानी को उलीचना प्रकृति के संतुलन को बिगा |
वह दिन दूर नहीं, जब खेती के लिए जमीन और पानी को लेकर समाज में एक नई लड़ाई छिड़ेगी। विश्व में प्रति व्यक्ति जल की मात्रा तेजी से घट रही है। उस पर जनसंख्या लगातार बढ़ रही है। दोनों ही बातें आने वाले दिनों में दुनिया में विस्फोटक हालात का निर्माण कर देंगी। एक समय दस-दस कमरों की आलीशान कोठियां तो लोगों के पास होंगी, लेकिन पीने के लिए पानी नहीं मिलेगा। जेब में पैसा तो इफरात होगा, लेकिन खरीदने के लिए मंडियों में अनाज नहीं होगा। विश्व में १९७५ से २००० के बीच कुल सिंचित क्षेत्र में तीन गुना बढ़ोतरी हुई थी। लेकिन उसके बाद विस्तार की गति मंद हो गई। संभव है जल्द ही सिंचित क्षेत्र घटना शुरू हो जाए। कई देशों में जलस्तर मानक से काफी नीचे जा चुका है। जहां-जहां सिंचाई प्रणाली भूगर्भ जल पर निर्भर है, वे पहले ही खतरे में हैं। भारत इसका अहम उदाहरण है। दूसरी ओर, खाद्यान्न उत्पादन के लिए आवश्यक जल की मात्रा को भी नजरअंदाज नहीं किया जा सकता। चाय, कॉफी, जूस इत्यादि के जरिए हम प्रतिदिन औसतन चार लीटर पानी पीते हैं। लेकिन जो खाना हम प्रतिदिन खाते हैं, उसके उत्पादन के लिए २००० लीटर पानी की आवश्यकता होती है। यानी हमारी पेय आवश्यकता का ५०० गुना पानी खाद्य उत्पादन में खर्च हो जाता है। विश्व में खाद्य संकट गहराने के दो मुख्य कारण हैं। पहला, भूमि क्षरण और दूसरा, घटते जलस्रोत। बढ़ती जनसंख्या और घटती खेती योग्य भूमि के कारण अधिकांश देश खाद्यान्न आयात को मजबूर हो गए हैं। बड़ी-बड़ी मशीनों से लगातार धरती के पानी को उलीचना प्रकृति के संतुलन को बिगाड़ रहा है। खाद्य और पानी के बीच लगातार बिगड़ते संतुलन के मद्देनजर एक बड़ा सवाल ये पैदा हो रहा है कि हम आने वाली पीढ़ी के लिए क्या तैयार कर रहे हैं। पानी का स्तर कैसे गिरता जा रहा है और खेती कैसे मुसीबत बन गई है, इसका सबसे नाटकीय उदाहरण है सऊदी अरब। वहां पहले ही धरती के नीचे पानी कम था, तेल ज्यादा। ७० के दशक में जब उसने तेल निर्यात पर विवादास्पद पाबंदी लगाई, तभी उसे लगा कि कहीं गेहूं आयात पर भी पाबंदी न लगा दी जाए। लिहाजा उसने गेहूं उगाने का फैसला किया, जो सिंचाई के लिए पूरी तरह भूगर्भ जल पर निर्भर था। २० सालों में पंपिंग मशीनों से भूगर्भ जल का दोहन कर सऊदी अरब गेहूं के मामले में तो आत्मनिर्भर हो गया, लेकिन पानी के मामले में कंगाली मुंह ताकने लगी। पता चला कि उनके तमाम जलस्रोत नष्ट होने की कगार पर हैं। अब उसने २०१६ तक हर साल कृषि उत्पादन १/८ घटाने का निर्णय लिया है। लेकिन यह पहला देश था, जिसने खुलकर घटते जलस्तर की चर्चा की और साहसिक कदम उठाया। भारत भी इस समस्या से दो-चार हो रहा है। यहां अनाज खपत और भंडारण का अनुपात बहुत कम है। करीब १० करोड़ किसान पानी के लिए लगभग २ करोड़ कुओं का दोहन कर रहे हैं। एक रिपोर्ट के |
Saturday, March 19, 2011
जल और जमीन के लिए लड़ाई
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